मुहर्रम में क्या नाजाइज़ है?

 तअज़ियेदारी

मुसन्निफ़- मौलाना ततहीर अहमद रज़वी बरेलवी

आज कल जो ताज़िये बनाये जाते हैं, पहली बात ये हज़रत इमाम आली मक़ाम के रोज़ा का सही नक़्शा नहीं है, अज़ीब अज़ीब तरह के ताज़िये बनाये जाते हैं, फिर उन्हें घुमाया और गश्त कराया जाता है, एक दूसरे से मक़ाबिला किया जाता है, और उस मुक़ाबिले में कभी कभी लड़ाई झगड़े और लाठी डंडे चाकू और छुरी चलाने की नौबत आ जाती है, और ये सब हज़रत इमाम हुसैन की मुहब्बत के नाम पर किया जाता है। अफ़सोस इस मुसलमान को क्या हो गया है और ये कहाँ से चला था और कहां पहुँच गया, कोई समझाये तो मानने को तय्यार नहीं, बल्कि उल्टा समझाने वाले को बुरा भला कहने लगता है।

खुलासा ये है कि आज की ताज़िये और इसके साथ होने वाली तमाम बिदआत व खुराफ़ात व वाहियात सब नाजाइज़ व गुनाह है, मसलन मातम करना, ताज़िये पर चढ़ावे चढ़ाना उनके सामने खाना रखकर वहाँ फ़ातिहा पढ़ना, उनसे मन्नत मांगना, उनके नीचे से बरकत हासिल करने के लिए बच्चों को निकालना, ताज़िये देखने कोे जाना, उन्हें झुककर सलाम करना, सवारियाँ निकलना, सब जाहिलाना बातें और नाजाइज़ हरकतें हैं, उनका मज़हबे इस्लाम से कोई वास्ता नहीं, और जो जानता है उसका दिल ख़ुद कहेगा कि इस्लाम जैसा सीधा और शराफत व संजीदगी वाला मज़हब उन तमाशों और वहम परस्ती की बातों को कैसे गवारा कर सकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि ताज़िये और उसके साथ साथ ढोल बाजे और मातम करते हुए घूमने से इस्लाम और मुसलमानों की शान ज़ाहिर होती है। ये एक फ़ुज़ूल बात है, पांचों वक़्त की अज़ान और मुहल्ले बस्ती और शहर के सब मुसलमानों का मस्जिदों और ईदगाहों में जुमा और ईद की नमाज़ बा जमाअत अदा करने से ज़्यादा मुसलमानों की शान ज़ाहिर करने वाली कोई और चीज़ नहीं। ताज़िये और उसके तमाशों, ढोल बाजों और कूदने फांदने, मातम करने और बुज़ुर्गों के नाम पर ग़ैर शरई उर्सों, मेलों और आज की क़व्वालियों की महफिलों को देखकर तो गैर मुस्लिम ये समझते हैं कि इस्लाम भी हमारे मज़हब की तरह तमाशाई मज़हब है, बजाये सुधरने और इस्लाम की तरफ आने के और चिढ़ते हैं, और कभी कभी उस ताज़िये की वजह से लड़ाई झगड़े और ख़ूनरेज़ी की नौबत आती है, और बे वजह मुसलमानों का नुकसान होता है, और नमाज़, रोज़ा, ईमानदारी और सच्चाई, अहकामे शरअ की पाबंदी और दीनदारी को देखकर ग़ैर मुस्लिम भी कहते हैं कि वाक़ई मज़हब है तो बस इस्लाम है ये और बात है कि वो किसी वजह से मुसलमान न बने, लेकिन इस में भी कोई शक़ नहीं कि बहुत से ग़ैर मुस्लिमों क़ा दिल मुसलमान होने को चाहता है और कुछ हो भी जाते है, और होते रहे हैं। देखते नहीं हो कि दुनियां में कितने मुसलमान हैं और सिर्फ 1400 साल में उनकी तादाद कहाँ से कहाँ पहुँच गई, ये सब नमाज़, रोज़े और इस्लाम की भोली, सीधी, सच्ची बातों को देख कर हुए हैं, ताज़िये और उसके साथ मेलों ठेलों और तमाशों को देखकर न कोई मुसलमान हुआ, और न अब होता है। और ताज़िये से इस्लाम की शान ज़ाहिर नहीं होती बल्कि मज़हबे इस्लाम की बदनामी होती है

कुछ लोग मुहर्रम के दिनों में बजने वाले बाजों को ग़म का बाजा बताते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि गम के मौके पर बाजे नहीं बजाए जाते और ग़म मनाना भी तो इस्लाम में जाइज़ नहीं है। ये इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु की दर्दनाक शहादत के नाम पर बाजे बजाने वालों से मैं पूछता हूँ कि जब उनके यहाँ कोई हादसा हो जाए या कोई मरजाये तो क्यों बाजे नहीं बजाते और बेंड मास्टर को क्यों नहीं बुलाते, नाच कूद और तमाशे क्यों नहीं करते, और जो मौलवी साहब मुहर्रम में बाजे बजाने को जाइज़ कहते हैं जब ये मरें या उनके घर में कोई मरे तो उनकी मौत पर और फिर तीजे, दसवें, चालीसवें और बरसी पर महंगा वाला बैंड लाया जाए जो मौलवी साहब के शायाने शान हो। और चूंकि उनके यहाँ ये सब सवाब का काम है लिहाज़ा उनकी रूह को इसका सवाब भी जरूर पहुँचाया जाये।
बाज़ लोग कहते हैं कि हमारे ख़ानदान में ताज़िऐ पहले से होती चली आ रही है, एक साल हमने ताज़िया नहीं बनाया तो हमारा फलां नुकसान हो गया या बीमार हो गए या घर में कोई मर गया, ये भी जाहिलाना बातें हैं पहले तो ऐसा होता नही और हो भी जाए तो ये एक शैतानी चाल है वो चाहता है कि तुम हराम कारियों में लगे रहो, और ख़ुदा तआला और रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से दूर रहो, हो सकता है कि शैतान आप को डिगाने के लिए कुछ कुछ कर देता हो, क्योकि कुछ ताक़त अल्लाह तआला ने उसको भी दी है, और अल्लाह तआला की ज़ात तो ग़नी है सब से बे परवाह है अगर सब सुधर जाएं नेक और परहेज़गार हो जाए तो उसे कुछ नफा और फ़ायदा नहीं पहुंचता और सब बिगड़ जाए तो उसका कुछ घाटा नहीं होता, इंसान अच्छा करता है तो अपने अच्छे के लिए और बुरा करता है तो अपने बुरे के लिए और मुसलमान का अक़ीदा व ईमान इतना मजबूत होना चाहिए कि दुनियां का नफ़अ हो या नुकसान हम तो वही करेंगे जिस से अल्लाह तआला व रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम राज़ी हो, और घाटे नफ़अ को भी अल्लाह तआला  ही जानता है हम कुछ नहीं जानते, कभी किसी चीज़ में हम फ़ायदा समझते हैं और घाटा हो जाता है और कभी घाटा और नुकसान ख़्याल करते है मगर नफ़अ और फ़ायदा निकलता है। एक शख़्स को मुद्दत से एक गाड़ी खरीदने की तमन्ना थी और जब ख़रीदी तो पूरी फैमली के साथ इस गाड़ी में एक्सीडेंट के ज़रिए मारा गया। खुलासा ये है कि अपने सब काम अल्लाह तआला की मर्ज़ी पर छोड़ दीजिये, और उसके बताये हुए रास्ते पर चलना ज़िन्दगी का मक़सद बना लीजिए फिर जो होगा देखा जाएगा। और वही होगा जो अल्लाह तआला चाहेगा।
कुछ लोग कहते हैं कि ताज़िया और तख़्त बनाना सजाना ऐसा ही है जैसे जलसे, जुलूस, और मीलाद की महफिलों के लिए शामयाने पिंडालों, सड़कों, गलियों और घरों को सजाया जाता है। तो ये भी एक गलतफ़हमी है, जलसा, जुलूस, और महफिलों में सजावट और डेकोरेशन असल मक़सद नहीं होता, ज़िक्रे ख़ैर वअज़ व तब्लीग और तक़रीर मक़सूद होता है उसके लिए ये सजावटें होती हैं, और ताज़िया बनाने का मक़सद सिवाए, सवारने और घुमाने के और क्या है? और जलसे, जुलूस, और महफिलों के लिए भी हद से ज्यादा बे ज़रूरत इतना डेकोरेशन और सजवट करना कि आने वालों का ध्यान उसी में लग कर रह जाए और वही मक़सद बनकर रह जाए और ज़िक़्र ख़ैर वअज़ व तब्लीग की तरफ से तवज्जो हट जाए ये सब करना भी अच्छा नहीं है, और उन सब सजावटों में भी आपस में मुक़ाबिले और फ़ख्र व मुबाहत ख़िलाफ़े शरअ बातें हैं। ख़ासकर गरीबों मज़दूरों से जबर्दस्ती चंदे लेकर ये सब काम ज़्यादती है, बजाए सवाब के गुनाह भी हो सकता है, क्योकि गरीबों को सताना इस्लाम में ज़्यादा बुरा काम है।
महफ़िलें, मजलिसे कभी कभी बग़ैर सजवट और डेकोरेशन के भी होती हैं और ताज़िया तो सजावट ही का नाम है ये ना हो तो फिर ताज़िया ही कहाँ रहा?
कुछ लोग कहते हैं कि ताजियेदारी खत्म हो गई तो इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम मिट जाएगा तो ये भी उन लोगो की गलतफ़हमी हैं, हज़रत इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम तो दुनियां की लाखों मस्जिदों में हर जुमा की नमाज़ से पहले ख़ुत्बे में पढ़ा जाता है। पीरी मुरीदी के अक्सर सिलसिले उनसे होकर रसूले ख़ुदा  ( عزوجل ﷺ) तक पहुंचते हैं, और जब शजरे पढ़े जाते हैं तो इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम आता है, क़ुरआन करीम के 22वें पारे के पहले रूकूअ में जो आयते ततहीर है उसमें भी अहले बैत का ज़िक्र मौजूद है और तो और ख़ुद नमाज़ जो अल्लाह तआला की इबादत है उसमें भी आले मुहम्मद पर दुरूद पढ़ा जाता है सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम। उसके अलावा कितने जलसों, जुलूसों महफिलों, मजलिसों, नारों, नज़्मों, में उनका नाम आता है, ये सब दुनिया जानती है मेरे बताने की ज़रूरत नहीं और सही बात ये है कि इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम तो हर मुसलमान के दिल में अल्लाह तआला ने लिख दिया है, और जिस के दिल में इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु  का नाम नहीं वो मुसलमान कहलाने का हक़दार नहीं। तो भाइयों! जिस का ज़िक्र नमाज़ों में, ख़ुत्बों में, क़ुरआन की आयतों में, और हज़ारों महफिलों मजलिसों और खानकाही शजरों में हो उसका नाम कैसे मिट जाएगा। ताजियादारी और उसके साथ जो तमाशे होते हैं उससे तो हज़रत इमाम पाक का नाम बदनाम किया जाता है।
जो लोग कहते हैं कि ताजियेदारी खत्म हो गई तो इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम मिट जाएगा मैं उनसे पूछता हूं कि हज़रत इमाम पाक से पहले और बाद में जो हज़ारों लाखों हज़रात अम्बिया व औलिया व शोहदा हुए हैं उनमें से किस किस के नाम ताजियेदारी या मेले तमाशे होते हैं? क्या उन सबके नाम मिट गए? हक़ ये है कि ताजियेदारी ख़त्म होने से इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु का नाम नहीं मिटेगा बल्कि ताजियेदारों का नाम मिट जाएगा और आजकल ताजियेदारी अपने नाम के लिए ही हो रही है इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु  के नाम के लिए नहीं। देखा नहीं ये ताजियेदार अपनी नामवरी कि मेरा ताज़िया सब से ऊंचा, सबसे अच्छा रहे और आगे चले उसके लिए कैसे कैसे झगड़े करते हैं, खुद भी लड़ते मरते हैं और औरों को भी मरवाते हैं।
(मुहर्रम में क्या जाइज़ ? क्या नाजाइज़ ? पेज17)

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