بسم الله الرحمن الرحيم


मुहर्रम में क्या जाइज़ ? क्या नाजाइज़?


 मुसन्निफ़ - मौलाना ततहीर अहमद रज़वी बरेलवी

 प्यारे इस्लामी भाईयों! मज़हबे इस्लाम में एक अल्लाह की इबादत ज़रूरी है साथ ही साथ उसके नेक बंदों से मुहब्बत व अक़ीदत भी जरूरी है। अल्लाह के नेक अच्छे और मुक़द्दस बंदों से असली, सच्ची और हक़ीक़ी मुहब्बत तो ये है कि उनके ज़रिए अल्लाह ने जो रास्ता दिखाया है उस पर चला जाए, उनका कहना माना जाए, अपनी ज़िंदगी को उनकी ज़िंदगी की तरह बनाने की कोशिश की जाए, इसके साथ साथ इस्लाम के दायरे में रहकर उनकी याद मनाना, उनका ज़िक़्र और चर्चा करना, उनकी यादगारें क़ाइम करना भी मुहब्बत व अक़ीदत है। और अल्लाह के जितने भी नेक और बरगुज़ीदा बंदे है उन सब के सरदार उसके आखिरी रसूल हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु तआला अलैहि वसल्लम हैं। उनका मर्तबा इतना बड़ा है कि वो अल्लाह के रसूल होने के साथ साथ उसके महबूब भी है। और जिस को दीन व दुनियां में जो कुछ भी अल्लाह ने दिया, देता है, और देगा, सब उन्हीं का ज़रीया, वसीला और सदक़ा है। उनका जब विसाल हुआ, और जब दुनियां से तशरीफ़ ले गए तो उन्होंने अपने क़रीबी दो तरह के लोग छोड़े थे। एक तो उनके साथी जिन्हें सहाबी कहते हैं। उनकी तादाद हुज़ूर सलल्ललाहु तआला अलैहि वसल्लम के विसाल के वक़्त एक लाख से भी ज़्यादा थी। दूसरे हुज़ूर की आल व औलाद और आप की पाक बीवियाँ उन्हें अहले बैत कहते हैं, हुज़ूर के इन सब क़रीबी लोगों से मुहब्बत रखना मुसलमान के लिए निहायत ज़रुरी है हुज़ूर के अहले बैत हों या आप के सहाबी उन में से किसी को भी बुरा भला कहना या उनकी शान में गुस्ताख़ी और बे अदबी करना मुसलमान का काम नहीं है, ऐसा करने वाला गुमराह व बद दीन है उसका ठिकाना जहन्नम है। हुज़ूर के अहले बैत में एक बड़ी हस्ती इमाम आली मक़ाम सय्येदिना "इमाम हुसैन" भी हैं उनका मर्तबा इतना बड़ा है कि वो हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सहाबी भी हैं, और अहले बैत में से भी हैं, यानी आपकी प्यारी बेटी के प्यारे बेटे आप के प्यारे और चहीते नवासे हैं। रात रात भर जाग कर अल्लाह तआला की इबादत करने वाले और क़ुरआने अज़ीम की तिलावत करने वाले मुत्तक़ी, इबादत गुज़ार, परहेज़गार, बुज़ुर्ग अल्लाह तआला के बहुत बड़े वली हैं, साथ ही साथ मज़हबे इस्लाम के लिए राहे ख़ुदा में गला कटाने वाले शहीद भी हैं। मुहर्रम के महीने की 10 तारीख़ को जुमा के दिन 61 हिजरी में यानी हुज़ूर सल्लल्लाहुत आला अलैहि वसल्लम के विसाल के तक़रीबन 50 साल के बाद आपको और आपके साथियों और बहुत से घर वालों को ज़ालिमों ने ज़ुल्म करके करबला नाम के एक मैदान में 3 दिन प्यासा रख कर शहीद कर दिया। इस्लामी तारीख़ का ये एक बड़ा सानिहा और दिल हिला देने वाला हादसा है, और 10 मुहर्रम जो कि पहले ही से एक तारीख़ी और यादगार दिन था इस हादसे ने इसको और भी जिंदा व जावेद कर दिया, और उस दिन को हज़रत इमाम हुसैन के नाम से जाना जाने लगा, और गोया कि ये हुसैनी दिन हो गया, और बेशक ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन मजहबे इस्लाम एक सीधा सच्चा संज़ीदगी और शराफ़त वाला मज़हब है, और उसकी हदे मुकर्रर हैं, लिहाज़ा इसमें जो भी हो सब मज़हब और शरीयत के दायरे में रहकर हो तभी वो इस्लामी बुज़ुर्गों की यादगार कहलाएगी, और जब हमारा कोई भी तरीक़ा मजहब की लगाई चहार दीवारी से बाहर निकल गया, तो वो ग़ैर इस्लामी और हमारी बुज़ुर्ग शख़्सियतों के लिए बाइसे बदनामी हो गया। हम जैसा करेंगे हमे देख कर दूसरे मज़हबों के लोग यही समझेंगें कि इनके बुज़ुर्ग भी ऐसा करते होंगे, क्योकि क़ौम अपने बुजुर्गों और पेशवाओ का तआरुफ़ होती है, हम अगर नमाज़े, क़ुरआन की तिलावत करेंगें, जुए, शराब गाने बजाने और तमाशों से बच कर ईमानदार, शरीफ़ और भले आदमी बनकर रहेंगे, तो देखने वाले कहेंगे कि जब ये इतने अच्छे हैं तो इनके बुज़ुर्ग कितने अच्छे होंगें, और जब हम इस्लाम के ज़िम्मेदार ठेकेदार बनकर इस्लाम और इस्लामी बुजुर्गों के नाम पर ग़ैर इंसानी हरकतें नाच कूद और तमाशे करेंगें तो यक़ीनन जिन्होंने इस्लाम का मुतालअ नहीं किया है उनकी नज़र में हमारे मज़हब का गलत तआरुफ़ होगा, और फिर कोई क्यों मुसलमान बनेगा? हुसैनी दिन यानी 10 मुहर्रम के साथ भी कुछ लोगो ने यही सब किया, और इमाम हुसैन के किरदार को भूल गए, और इस दिन को खेल तमाशों, ग़ैर शरई रसूम नाच गानों, मेलों, ठेलों और तफरीहों का दिन बना डाला। और ऐसा लगने लगा कि जैसे इस्लाम भी माअज़ल्लाह दूसरे मज़हबों की तरह खेल तमाशों तफरीहों और रंग रिलियों वाला मज़हब है। ख़ुद को मुसलमान कहने वालों में एक नाम निहाद इस्लामी फ़िरक़ा ऐसा भी है कि उनके यहाँ नमाज़ रोज़े वगैरह अहकामे शरअ और दीनदारी की बातों को तो कोई ख़ास अहमियत नहीं दी जाती बस मुहर्रम आने पर रोना, पीटना, चीखना, चिल्लाना, कपड़े फाड़ना, मातम व सीना कोबी करना ही उन का मज़हब है गोया कि उनके नज़दीक अल्लाह तआला ने अपने रसूल को इन्हीं कामों को करने और सिखाने को भेजा था, और इन्हीं सब बेकार बातों का नाम इस्लाम है। मज़हबे अहले सुन्नत वलजमाअत में से भी बहुत से अवाम कुछ राफ़ज़ियों के असरात और कुछ हिंदुस्तान के पुराने ग़ैर मुस्लिमों जिन के यहाँ धर्म के नाम पर जुए खेले जाते हैं, शराबें पी जाती हैं, जगह जगह मेले लगा कर खेल तमाशों ढोल, बाजे, वगैरह ग़ैर इस्लामी काम कराये जाते हैं, उनकी सोहबतों में रहकर उनके पास बैठने उठने, रहने सहने के नतीज़े में खेल तमाशे और वाहियात भरे मेले को ही इस्लाम समझने लगे, और बांस, कागज़ और पन्नी के मुजस्सिमे बना कर उनपर चढ़ावे चढ़ाने लगे। दरअसल होता ये है कि ऐसे कामों कि जिन में लोगों को ख़ूब मज़ा और दिल चस्पी आये, तफरीह और चटखारे मिले उनका रिवाज़ अगर कोई डाले तो वो बहुत जल्दी पढ़ जाती है, और क़ौम बहुत जल्दी उन्हें अपना लेती है, और जब धर्म के ठेकेदार उनमे सवाब बता देते हैं तो अवाम उन्हें और भी मज़ा लेकर करने लगते हैं कि ये ख़ूब रही, रंगरलियां भी हो गई और सवाब भी मिला, तफरीह और दिल लगी भी हो गई खेल तमाशे भी हो गए और जन्नत का काम, क़ब्र का आराम भी हो गया। मौलवी साहब या मियाँ हुज़ूर ने कह दिया है कि सब जाइज़ व सवाब का काम है ख़ूब करो, और हमने भी ऐसे मौलवी साहब को खूब नज़राना देकर ख़ुश कर दिया है, और उन्होंने हम को तअज़िये बनाने घुमाने, ढोल बजाने और मेले ठेले लगाने और उनमें जाने की इजाज़त दे दी है अल्लाह तआला नाराज़ हो या उस का रसूल सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ऐसे मौलवियों और पीरों से हम ख़ुश और वो हमसे ख़ुश। इस सब के वाबजूद अवाम में ऐसे लोग भी काफ़ी हैं जो गलती करते हैं और इसको गलती समझते भी हैं और इस हराम को हलाल बताने वाले मौलवियों की भी उनकी नज़र में कुछ औक़ात नहीं रहती। एक गॉव का वाकिया है कोई ताज़िये बनाने वाला कारीगर नहीं मिल रहा था या बहुत सी रक़म का मुतालबा कर रहा था वहाँ की मस्जिद के इमाम ने कहा कि किसी को बुलाने की ज़रूरत नहीं है ताज़िया मैं बना दूंगा और इस इमाम ने गांव वालों को ख़ुश करने के लिए बहुत उम्दा बढ़िया और खूबसूरत ताज़िया बना कर दिया और फिर उन्हीं ताजियेदारों ने इस इमाम को मस्जिद से निकाल दिया और ये कहकर इस का हिसाब कर दिया कि ये कैसा मौलवी है कि ताज़िया बना रहा है मौलवी तो ताज़ियेदारी से मना करते हैं, और मौलवी साहब का बक़ौल शाइर ये हाल हुआ कि: "न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम" "न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे" दरअसल बात ये है कि सच्चाई में बहुत ताक़त है हक़ हक़ ही होता है। और सर चढ़ कर बोलता है और हक़ की अहमियत उनके नज़दीक भी होती है जो ना हक़ पर हैं। बहरे हाल इस में कोई शक नहीं कि एक बड़ी तादाद में हमारे सुन्नी मुसलमान अवाम भाई हज़रत इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु की मुहब्बत में गलत फहमियों के शिकार हो गए और मज़हब के नाम पर नाजाइज़ तफरीह और दिल लगी के काम करने लगे उनकी गलत फहमियों को दूर करने के लिए हमने ये मज़मून मुरत्तब किया है इस मुख्तसर मज़मून में इस्लाम व सुन्नियत के नाम पर जो कुछ होता है इस मे इस्लामी नुक़्ता ए नज़र से सुन्नी उलमा के फतवों के मुताबिक़ जाइज़ क्या है और नाजाइज़ क्या है, किस में गुनाह है और किस में सवाब। इस में बहस व मुबाहिसे और तफसील की तरह न जाकर सिर्फ जाइज़ और नाजाइज़ कामों का एक जायज़ा पेश करेंगे, और पढ़ने और सुनने वालों से गुजारिश है कि ज़िद और हठ धर्मी से काम न लें, मौत क़ब्र और आख़िरत को पेशे नज़र रखें। मेरे अज़ीज़ इस्लामी भाइयों! हम सब को यक़ीनन मरना है, और खुदा ए तआला को मुंह दिखाना है वहां ज़िद और हठ धर्मी से काम नहीं चलेगा। भाइयों! आंखें खोलो और मरने से पहले होश में आ जाओ और पढ़ो समझो और मानों।

(मुहर्रम में क्या जाइज़ ? क्या नाजाइज़? पेज 3)

Comments

Popular posts from this blog