ज़िक्रे शहादत

मुसन्निफ़ - मौलाना ततहीर अहमद रज़वी बरेलवी

हज़रत सय्यद इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु और दूसरे हज़रात अहले बैअत किराम का ज़िक्र नज़्म में या नस्र में करना और सुनना यक़ीनन जाइज़ है, और बाइसे ख़ैर व बरकत व नुज़ूले रहमत है लेकिन इस सिलसिले में नीचे लिखी हुई बातों को ध्यान में रखना ज़रूरी है।
ज़िक्रे शहादत में सही रिवायात और सच्चे वाकियात बयान किये जाए, आज कल कुछ पेशेवर मुक़र्रीरों और शायरों ने अवाम को ख़ुश करने और तक़रीरों को जमाने के लिए अज़ीब अज़ीब किस्से और अनोखी निराली हिकायात और  गढ़ी हुई कहानियां और करामात बयान करना शुरू कर दिया है, क्योकि अवाम को ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है, और आज कल के अक्सर मुक़र्रीरों को अल्लाह عزوجل रसूलसे ज़्यादा अवाम को खुश करने की फ़िक्र रहती है, और बज़ाहिर सच से झूंठ में मज़ा ज्यादा है और जलसे ज़्यादातर अब मज़ेदारियों के लिए ही हो रहे हैं।
आला हज़रत मौलाना शाह अहमद रज़ा रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फरमाते हैं:- 
शहादत नामे नज़्म या नस्र जो आज कल अवाम में राइज़ है अक्सर रिवायाते बातिला व बे सरोपा से ममलू और अकाज़ीब मोज़ूआ पर मुश्तमिल है, ऐसे बयान का पढ़ना और सुन्ना, वो शहादत नामा हो, ख्वाह कुछ और मजलिसे मीलाद मुबारक में हों ख्वाह कहीं और मुतलकन हराम व नाजाइज़ है। (फतावा रजविया जि. 24, स.514, मतबूआ रज़ा फाउंडेशन लाहौर) और उसी किताब के सफ़हा 522 पर इतना और है:- 
यूँही मरसिये। ऐसी चीज़ों का पढ़ना सुन्ना सब गुनाह व हराम है।
हदीस पाक में है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने मरसियों से मना फरमाया।
(ज़िक्रे शहादत का मक़सद सिर्फ वाकियात को सुन कर इबरत व नसीहत हासिल करना हो और साथ ही साथ स्वालिहीन के ज़िक़्र की बरकत हासिल करना ही हो, रोने और रुलाने के लिए वाकियाते कर्बला बयान करना नाजाइज़ व गुनाह है।इस्लाम में 3 दिन से ज्यादा मौत का सोग जाइज़ नहीं)
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान बरेलवी फरमाते हैं:-
शरीयत में औरतों को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन सोग मनाने का हुक्म दिया है, औरों की मौत के तीसरे दिन तक इजाज़त दी है, बाक़ी हराम है, और हर साल सोग की तजदीद तो असलन किसी के लिए हलाल नहीं। (फतावा रजविया जि.24, स.495)
और रोना रुलाना सब राफ़ज़ीयों के तौर तरीके हैं क्योकि उनकी किस्मत में ही ये लिखा हुआ है। राफ़ज़ी ग़म मनाते हैं और ख़ारजी ख़ुशी मनाते हैं और सुन्नी, वाकियाते कर्बला से नसीहत व इबरत व इबरत हासिल करते है और दीन की खातिर कुर्बानियां देने और मुसीबतों पर सब्र करने का सबक लेते हैं और उनके ज़िक़्र से बरकत और फ़ैज़ पाते हैं।
हाँ अगर उनकी मुसीबतों को याद करके ग़म हो जाए या आँसू निकल आये तो ये मुहब्बत की पहचान है। मतलब ये है कि एक होता है ग़म मनाना और ग़म करना, और एक होता है ग़म हो जाना। ग़म मनाना और करना नाजाइज़ है और ध्यान आने पर ख़ुद बख़ुद हो जाए तो जाइज़ है।
(मुहर्रम में क्या जाइज़ ? क्या नाजाइज़ ? पेज 15)

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